अभी तक इतना ही जान पाए हम सूर्य को

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सूर्य का शौर्य और विभाजन: एपिसोड – 2
आज हम जानते हैं कि सूर्य और हमारा सौर परिवार विशाल ब्रह्मांड के महासागर मे एक बूंद के बराबर भी नही है। सूर्य आकाश का सिर्फ एक सामान्य तारा है रात के आकाश मे दिखने वाले तारे सूर्य से भी बड़े हैं, आद्रा तारे का व्यास सूर्य के व्यास से 350 गुना अधिक है। नीले और पीले रंग मे चमकने वाले तारे सूर्य से भी ज्यादा गर्म है। सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा होने के बावजूद भी 330 हजार गुना भारी है, पृथ्वी का व्यास करीब 12750 किमी है तो सूर्य का 14 लाख किमी है।  सूर्य का केन्द्र भाग इसकी सतह से 7 लाख किमी दूर है। सूर्य की हमसे औसत दूरी 15 करोड़ किमी है। इसके केंद्र में तापमान डेढ़ करोड़ डिग्री सेंटीग्रेट है, जहॉ निरन्तर हाइड्रोजन विस्फोट होते रहते हैं, और एक सेकंड मे भट्टी मे 40 लाख टन द्रव ऊर्जा मे बदल कर 7 लाख किमी की यात्रा कर सूर्य के प्रकाशमंडल मे पहुँचता है जहाँ पहुंचने मे इसका तापमान 6000 डिग्री सेंटीग्रेट रह जाता है। जो चमकता हुआ प्रकाशमंडल हमें दिखाई देता है।
क्या है सूर्य का प्रकाशमंडल
 वैज्ञानिकों ने सूर्य की सतह को तीन प्रमुख मंडलों मे बांटा है, सबसे नीचे प्रकाशमंडल है। जिसकी मोटाई 100 से 300 किमी है, सूर्य के काले धब्बे सनस्पॉट  सूर्य कलंक हमें यही दिखाई देते हैं। सबसे पहले गैलीलियो ने 1610  मे इन धब्बो को देखा था , लेकिन धर्माचार्यों ने उनकी इस बात को मानने से इनकार कर दिया था। यही हमे सफेद दाग भी दिखते है जिन्हें फेकूली (फिलामेंट) कहते हैं , जो किनारो मे नजर आते हैं, फेकूली सूर्य की सतह से करीब 300 किमी ऊंचे होते है और अंतरिक्ष मे सबसे ज्यादा ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं ।  ये इतने बड़े होते है कि इनमें हमारी कई पृथ्वी समा सकती हैं । इन्ही कलंकों के अध्य्यन से पता चला कि सूर्य भी अपनी धुरी में चक्कर लगाता है। 
प्रकाशमंडल के ऊपर है वर्णमण्डल व परिमंडल 
इन्हें हम  खग्रास सूर्यग्रहण के समय ही देख सकते हैं,, शुरुआत मे सूर्य के बाह्य वातवरण की जानकारी हमे इसी ग्रहण के दौरान मिली है। वैदिक काल मे कहा गया है कि राहु नाम का कोई राक्षस जब सूर्य का ग्रास लेता है, तब सूर्य ग्रहण होता है। जबकि महान खगोलविद आर्यभट्ट ने लिखा है ” शशी सूर्य शशनि महति च भूच्छाया, यानी सूर्य ग्रहण मे चन्द्रमा सूर्य को ढक लेता है। खग्रास सूर्यग्रहण मे चन्द्रमा सूर्य को ढक लेता तो चाँद की काली छाया से सूर्य की सतह मे लाल रंग का वलय दिखता है । 10 हजार किमी  मे फैले इस मंडल को वर्ण मंडल कहते हैं। इसी मंडल से अतितप्त गैसों की ज्वालायें यानी लपटे उठती हैं। जिन्हें सौर ज्वालाएं कहते हैं। ये हजारो-लाखो किमी ऊपर उठ कर  वापस सूर्य की सतह पर गिरती हैं और अंतरिक्ष में भी फैल जाती हैं।
वर्णमंडल के ऊपर सूर्य का परिमंडल है और इसे ही वास्तविक वायुमंडल भी कहा जाता है, जब खग्रास यानी पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान चाँद सूर्य को पूरा ढक लेता है तब ये नजर आता है। ये सूर्य के  बहुत दूर तक फैलने के साथ ही विरल गैसों से बना है, इसी मंडल से सौर वायु किरणे अन्य ग्रहों तक पहुँचती हैं, 15 करोड़ किमी दूर हमारे ऊपरी वायुमंडल से टकराती हैं। इस मंडल की एक रोचक बात ये है कि केंद्र भट्टी से निकला डेढ़ करोड़ डिग्री सेंटीग्रेट का तापमान प्रकासमण्डल मे 6000 डिग्री रह जाता है और हम सोचते है ऊंचे मंडल मे पहुँचने तक कम हो जाता है जबकि वर्णमंडल मे तापमान 20000 डिग्री और इससे अधिक ऊंचाई पर पहुचने मे लाखों डिग्री सेंटीग्रेट में  पहुँच जाता है। ऐसा क्यों होता है इस पर शोध जारी है , पर खगोलविदों का मत है कि सूर्य की सतह पर जो ज्वालायें उठती हैं वो उनकी ध्वनि तरंगे बाहरी वायुमंडल  की विरल गैसों से टकराकर और भी उष्ण तेज हो जाती हैं।
सूर्य की शक्ति
  आइजेक न्यूटन के अनुसंधानों से प्रकाश किरणों के अध्ययन की शुरुआत होने के बाद वर्णक्रमदर्शी, स्पेक्ट्रोस्कोप जैसे महत्वपूर्ण उपकरणों की खोज हुई। इसी वर्णक्रमदर्शी से 1868 मे सूर्य मे सबसे पहले हीलियम तत्व की खोज हुई। उसके बाद ही इसे धरती मे खोजा गया,फिर सोचा गया कि तारो मे इतनी ज्यादा ऊर्जा कौन से ईंधन से जलने से होती है। लेकिन सूर्य के अंदर की भीषण गर्मी की जानकारी हमें करीब 100 साल पहले ही मिली है। आज हम जानते है कि सूर्य करीब पांच अरब साल से जलता आ रहा है उसका मुख्य स्रोत हाइड्रोजन गैस है जो सूर्य मे 80 प्रतिशत है। शेष तत्व बहुत कम हैं। हाइड्रोजन उसका ईंधन और हीलियम राख है। उन्नीसवीं सदी के दशक मे बेकरेल व क्यूरी दंपति के शोध ने बताया कि रेडियम और पोलोनियम जैसे तत्वों से विविध किरणों के रूप मे ऊर्जा का सतत उत्सर्जन होता है। इस प्रकार पता चला कि गैसीय द्रव का क्षय होकर ऊर्जा बनती है। फिर 1905 मे  अल्बर्ट आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत से जानकारी मिली कि कितने द्रव से कितनी ऊर्जा पैदा होती है। आज हम जानते है सूर्य मे हाइड्रोजन बम फटते रहते हैं, अरबो बमो के निरंतर विस्फोट से हाइड्रोजन द्रव के जलने से ऊर्जा पैदा होती है। आज मानव ने भी हाइड्रोजन बम तैयार कर लिए है लेकिन वैज्ञानिक इस मानवनिर्मित बम से पहले ही जान गए थे कि सूर्य के केन्द्रभाग मे हाइड्रोजन से संलयन से ऊर्जा कैसे पैदा होती है।  1925 मे विख्यात खगोलविड  आर्थर एल्ड़िंगन ने सुझाया की सूर्य और तारो की भीषण ऊर्जा वास्तव मे नाभिकीय ऊर्जा है।बाद मे अन्य वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष से पता चला कि हाइड्रोजन के संगलन से ही सूर्य तारो मे ऊर्जा पैदा होती है। मानव  ने 1950 के बाद हाइड्रोजन बम बनाया।
युवा लेखक बबलू चंद्रा । 
फोटो :बबलू चंद्रा
श्रोत :गुणाकर मूले 

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