नौवा ग्रह बनने की जंग में फिर सामने है प्लूटो

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अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ सम्मेलन में होगा प्लूटो के भाग्य का फैसला

नौवा ग्रह बनने की जंग में प्लूटो (यम) एक बार फिर सामने है। इसके भाग्य का फैसला अगस्त में होने जा रहे अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ सम्मेलन में तय होगा। प्लूटो वही ग्रह है, जिसे 2006 में ग्रह की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था।

ग्रह की श्रेणी से बौना ग्रह में शामिल किए जाने के बाद विवादों में रहे बौना ग्रह प्लूटो एक बार फिर चर्चाओं में है। ग्रह की नई परिभाषा के चलते 18 वर्ष पहले प्लूटो को ग्रह की श्रेणी से निकाल दिया था।

अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ( आईएयू ) के  फैसले का विज्ञानियों के एक समूह ने कड़ा एतराज जताया था।

इसके बाद प्लूटो को लेकर विज्ञानियों के बीच संघर्ष छिड़ गया। जिसकी प्रतिक्रियाएं आए दिन सोसल मीडिया में नजर आने लगी , जो आजतक जारी है। अब अगस्त के प्रथम सप्ताह से दक्षिण अफ्रीका के कैप टाउन में आईएयू का अगला सम्मेलन होने जा रहा है। बताया जा रहा है कि इस बार ग्रहों को लेकर एक नई परिभाषा बनाई गई है। जिसे अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ सम्मेलन में रखा जाएगा। यदि नई परिभाषा को संस्तुति मिल जाएगी तो एक बार हमारे सौर परिवार में ग्रहों की संख्या फिर नौ हो जाएगी।

इन कारणों से किया बाहर

प्लूटो को 2006 में ग्रह की श्रेणी से बाहर किए जाने की वजह परिक्रमा है, जो 17 डिग्री कोण पर परिक्रमा करता है। ग्रह की परिभाषा की तुलना में गोल नही होना भी एक कारण रहा। इसके अलावा प्लूटो का वरुण ग्रह की कक्षा के भीतर जा पहुचने की वजह भी एक कारण रही। इस सम्मेलन में एरिस व सेरेस को ग्रह की श्रेणी में शामिल किया जाना था। मगर इन दोनों को भी बौना ग्रह की श्रेणी में शामिल कर दिया गया।

1930 में हुई थी प्लूटो की खोज

प्लूटो की खोज 18 फरवरी 1930 में हुई। पृथ्वी के 247.68 वर्ष के बराबर इसका एक वर्ष होता है। यह सूर्य के करीब आने पर दूरी 4.4 अरब किमी रह जाती है और जब दूर पहुचता है तो 7.4 अरब किमी होती है। आकार में यह बहुत छोटा है , जो हमारे चंद्रमा का एक तिहाई है। इसकी कक्षा भी निश्चित रहती है। कभी कभी यह नेप्च्यून की कक्षा के भीतर पहुच जाता है। यह कुईपर बेल्ट में घिरे रहने वाले पिंडों के समान नाइट्रोजन की बर्फ से ढका रहता है। प्लूटो सौर मंडल के अवशेष मलवे से बना है। प्लूटो को नग्न आंखों से नही देखा जा सकता है। सूर्य की रोशनी को प्लूटो तक पहुचने में लगभग पांच घंटे का समय लगता है।

श्रोत: डा शशिभूषण पांडेय, आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान, नैनीताल।


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