टूटते तारों की बौछारें ,रोमांच से भरी रातें शुरू

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*टूटते तारों की बौछारें ,रोमांच से भरी रातें शुरू*

– *14 दिसम्बर को चरम पर होगी टूटते तारों की आसमानी आतिशबाजी*

*क्या हैं टूटते तारे* *क्यों होती है उल्कावृष्टि*

अंतरिक्ष जिसमें करोड़ो मंदाकिनियां, हर एक में अरबों तारे, पिंड, ग्रह- उपग्रह व अनगिनत उल्कापिंड सहित पत्थर व धातु के कणों व कंकडों का अस्तित्व है। हमारी अपनी आकाशगंगा मे सौर मंडल मे हम खुली आंखों से सिर्फ चाँद सूर्य और स्याह रात मे टिमटिमाते हज़ारो तारो को निहार सकते हैं। चाँद की गैरहाजरी वाली अंधेरी घनी रातों में खुले आसमान मे टकटकी लगाकर एकाग्रता से देखने में हमे कभी-कभार ही अंतरिक्ष की अनदेखी ऐसी विषय-वस्तु दिखाई देती है, जिसकी पुनरावर्त्ति की कामनाओं के साथ ही हम उसके बाबत सोचने मे मजबूर हो जाते हैं। सौर मंडल मे ग्रहों के बीच अंतरिक्ष मे अनगिनत छोटे-छोटे कंकड़ या कण मौजूद हैं। ऐसा जब कोई कण तीव्र वेग से हमारे वायुमंडल मे प्रवेश करता है तो क्षण-भर चंद सेकेंड के लिए चमक उठता है, इसे ही *उल्कापात या टूटता तारा* कहते हैं। ये 70 किमी प्रति सेकेंड या उससे भी अधिक वेग से वायुमंडल मे प्रवेश करते हैं और वायुमण्डलीय अणु-परमाणु के साथ रगड़ से जल उठते हैं जो एक तीव्र चमक बिखरते हुए पलक झपकते ही जलकर गायब हो जाते है। ये आसमानी ख़ुबसूरत आतिशबाजी धरती से करीब 100 किलोमीटर ऊपर होती है। और ठीक उसी तरह नजर आती है जैसे हम दीवाली मे स्काईशॉट पटाखों के जलाने पर आसमान मे जल कर बिखरती हुई रंगबिरंगी रोशनी देखते हैं फर्क बस इतना है कि दीवाली मे हम मानव जनित कृतिम आतिशबाजी के आसमान मे देखते हैं जबकि उल्काओं की आतिशबाजी प्राकृतिक खगोलीय रोमांच से भरी आतिशबाजी है।

*दो तरह की होती है उल्काएं*

उल्काएं दो प्रकार की होती हैं विरल उल्काएं और उल्कावृष्टि। कुछ उल्काएं स्वत्रन्त्र रूप से आकाश मे वर्ष भर नजर आती हैं। इन्हें विरल उल्काएं कहते हैं ऋतुओं के अनुसार इनकी संख्या भी घटती बढ़ती रहती है। ऐसी उल्काओं को मध्यरात्रि से पहले कम संख्या जबकि आधी रात के बाद अधिक संख्या मे देखा जा सकता है। दूसरी है *उल्कावृष्टि* उल्काओं की बारिश जिसका सीधा संबंध धूमकेतुओ से होता है। धूमकेतू धूलिकण बर्फ रूपी गैसों के पिंड होते है और हमारे सूर्य की परिक्रमा करने के साथ ही हमारे सौर परिवार के सदस्य होते हैं। इनकी पूंछ के कण-कंकड़ भी इनके साथ इनकी कक्षाओं मे चक्कर लगाते है, जो लाखों किमी तक लंबे होते हैं। जब पृथ्वी धूमकेतू के यात्रा मार्ग से गुजरती है तब धूमकेतू के ये कण-कंकड़ वायुमंडल के सम्पर्क मे आते ही जलकर चमक उठते हैं और आसमान मे हमे उल्कावृष्टि के रोमांचक नजारे के दीदार होते हैं।

*फेथान 3200 से है जेमिनिड उल्कावृष्टि का संबंध*

पृथ्वी की कक्षा के नजदीक 11 अक्टूबर 1983 को दर्ज किए गए क्षुद्रग्रह जिसका व्यास लगभग 3.6 मील है, के विपरीत फेथान की कक्षा धूमकेतू से मिलती जुलती कक्षा है जिसमे बर्फरूपी गैस धूलिकण व कंकड मौजूद है। हर वर्ष नियत काल मे सूर्य की परिक्रमा करने सूर्य के नजदीक पहुँचने मे गर्म होने के व पृथ्वी की इसकी कक्षा मे गुजरने के कारण उल्काओं की बौछार होती है। हर वर्ष 14 दिसम्बर को पृथ्वी इसके यात्रा पथ से गुजरती है जिससे उल्कावर्ष्टि अपने चरम में होती है और आसमान मे प्रति घंटे लगभग 100 टूटते तारे हमें नजर आ सकते हैं।

*मिथुन तारामंडल से निकलती नजर आती है उल्काएं*

उल्कावृष्टि को तारो के मानचित्र मे देखने पर रेखांकित करने पर लगभग सभी टूटते तारे एक ही स्थान से निकलते नजर आते हैं, आकाश के इस बिंदू या स्थान को खगोल विज्ञान मे उल्का विकीर्णन बिंदु कहते हैं।

जिस तारामंडल मे उल्का विकीर्णन बिंदु होता है उसी का नाम उल्कावृष्टि को दिया जाता है। 14 दिसम्बर को होने वाली उल्कावृष्टि मिथुन तारामंडल मे नजर आती है इसलिए इसे जेमिनिड मेटियोर शावर कहा जाता है। जैसे साल 1996 व 1999 मे नवम्बर मे हुई उल्कावृष्टि का विकीर्णन बिंदु सिंह तारा मंडल मे गामा तारे के समीप था । इसलिए उसे सिंह उल्कावृष्टि का नाम दिया गया।

*महज दृष्टिभ्रम है एक बिंदू से तारों का टूटना व सैटेलाइटो को चलता तारा समझना*

उल्काओं की बौछार को किसी तारामंडल के एक बिंदू से टूटते तारो के विकीर्णन महज एक दृष्टिभृम है। क्योंकि तारे हमसे बहुत दूर हैं और उल्काएं लगभग 100 किलोमीटर वायुमंडल मे घर्षण से चमकती हैं। उल्काएं समांतर पथों मे ही धरातल की ओर आती हैं बिल्कुल वैसे ही जैसे दो समांतर रेल पटरियां जो दूर तक देखने मे एक साथ मिलती हुई प्रतीत होती हैं, ठीक उसी तरह उल्काओं की वृष्टि भी आकाश मे लगभग एक ही स्थान से होती हुई नजर आती है। वही दूसरी ओर आज भी अधिकतर लोग आसमान मे नजर आती सेटेलाइट उपग्रहों को चलता तारा मानते है कुछ लोग इन्हें ही टूटता तारा समझते हैं। जबकि ये मानव द्वारा अंतरिक्ष मे छोरे गए कृतिम उपग्रह / सेटेलाइट्स हैं।

*शहरों के प्रकाश प्रदूषण से दूर जाकर ही गिने जा सकते है टूटते तारे*

आसमान के ख़ुबसूरत नजारों के दीदार शहरों की चकाचोंध भरी लाइटो के प्रकाश से दूर जाकर ही किये जा सकते हैं। उल्काये व टूटते तारे वर्ष भर आसमान मे नजर आते हैं जबकि उल्कावृष्टि का चरम काल विशेष दिनो मे ही नजर आती है। जमी मे लाइटों की जगमगाहट व आसमान मे चाँद की रोशनी उल्काओं के दीदार मे खलल डालती है। इसलिए टूटते तारो के रोमांच को देखने के लिए सुरक्षित अंधेरी जगहों मे टॉर्च फोन को बंद कर एकाग्रता से आसमान की ख़ुबसूरत प्राकृतिक आतिशबाजी का आनंद लेने के साथ ही टूटते तारो को गिनती भी की जा सकता है सकती है। खगोल मे दिलचस्पी रखने वालों को 14 दिसम्बर की मध्य रात्रि के बाद चरम मे रहने वाले जेमिनिड उल्कावृष्टि को जरूर देखना चाहिए और और टूटते तारो को गिनने की कोशिश करनी चाहिए। उल्कावृष्टि का चरम काल मे वर्ष भर मे कुछ दिन ही होता है जिसमे दिसम्बर मे होने वाला जेमिनिड मेटीयोर शावर मुख्य आकषर्ण है। बबलू चन्द्रा

फोटो: बबलू चंद्रा।

श्रोत: एरीज

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